एक नवविवाहित डाक्टर अपनी पत्नी के साथ बगीचे में सैर कर रहा होता है कि तभी अचानक सामने से आती हुई एक सुंदर युवती ने मुस्कुराकर डॉक्टर का अभिवादन किया, जो देख कर डॉक्टर की पत्नी को ईर्ष्या हुई, तो उसने घर जा कर डॉक्टर साहब से पूछा, “वो युवती कौन थी और आप उसे कैसे जानते हैं।
डॉक्टर: अरे वह तो बस वैसे ही।
पत्नी: वैसे ही नहीं जरा आप बताएँगे कि आप उसे कैसे जानते हैं?
डॉक्टर साहब ने बड़ी लापरवाही से जवाब दिया, “अरे वैसे ही पेशे के सिलसिले में…”
पति: किसका पेशा आपका या उसका।
लोकतंत्र!
पापा जी के बड़े बेटे का कहना है कि उनका लोकतंत्र पर से यकीन सन 88 में ही उठ गया था, जब हमारी स्कूल की छुट्टियां हुई और रात को खाने की मेज पर पापा ने पूछा, “बताओ बच्चों छुट्टियों में दादा के घर जाना है या नाना के?”
सब बच्चों ने खुशी से हम आवाज होकर नारा लगाया – “दादा के …”
लेकिन अकेली मम्मी ने कहा कि “नाना के…।”
बहुमत चूंकि दादा के हक में था, लिहाजा मम्मी का मत हार गया और पापा ने बच्चों के हक में फैसला सुना दिया, और हम दादा के घर जाने की खुशी दिल में दबा कर सो गए।
अगली सुबह मम्मी ने तौलिए से गीले बाल सुखाते हुए मुस्कुरा कर कहा – “सब बच्चे जल्दी जल्दी कपड़े बदल लो हम नाना के घर जा रहे हैं।”
मैंने हैरत से मुँह फाड़ के पापा की तरफ देखा, तो वो नजरें चुरा कर अखबार पढ़ने कि अदाकारी करने लगे…
बस मैं उसी वक़्त समझ गया था कि लोकतंत्र में फैसले आवाम की उमंगों के मुताबिक नहीं, बल्कि बंद कमरों में उस वक़्त होते हैं, जब आवाम सो रही होती हैक