Pandit Sukh Ram Died: अनंत यात्रा पर पंडित सुखराम, सेरी मंच पर होंगे अंतिम दर्शन,

मंडी: देश में संचार क्रांति के मसीहा व राजनीति के चाणक्य पंडित सुखराम आज अपनी अनंत यात्रा पर निकले पड़े है। आज उन्हें सभी मंडी वासियों वह प्रदेश वासियों ने अंतिम विदाई दी हुई है। मंडी में सुबह ही नेताओं व समर्थकों का तांता लगाना शुरू हो गया। उनकी पार्थिव देह बाड़ी स्थित घर से सेरी मंच पर लाई गई। यहां 11 बजे लोगों के दर्शनार्थ पार्थिव देह रखी गई। सेरी मंच पर लोग अपने प्रिय नेता के अंतिम दर्शन कर सकेंगे।
करीब डेढ़ बजे सेरी मंच से उनकी अंतिम यात्रा शुरू होगी। मोती बाजार व समखेतर होते हुए अंतिम यात्रा ब्यास नदी के किनारे हनुमानघाट पहुंचेगी। यहां राजकीय सम्मान के साथ उनकी अंतेयष्टि होगी। प्रदेश कांग्रेस के बड़े नेता रात को ही मंडी पहुंच गए हैं। पंडित सुखराम को श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी थोड़ी देर में मंडी पहुंचेंगे। प्रशासन ने पंडित सुखराम की अंतेयष्टि की तैयारियां पूरी कर ली हैं।
पं. सुखराम को हिमाचल की राजनीति का चाणक्य यूं ही नहीं कहा जाता था। वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव में पं. सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस पार्टी को मात्र चार ही सीटें मिली थी। मगर इन चार सीटों ने कांग्रेस और भाजपा का सियासी संतुलन बिगाड़ कर रख दिया था। कांग्रेस को बहुमत के लिए एक सदस्य की कमी थी। तो वीरभद्र समर्थकों ने निर्दलीय विधायक रमेश ध्वाला को बलपूर्वक अपने साथ मिलाकर आईपीएच मंत्री भी बना दिया। तब पं. सुखराम ने मास्टर स्ट्रोक चलकर अपने दो विधायकों मनसा राम और प्रकाश चौधरी को भाजपा में शामिल करवाकर कांग्रेस के सारे समीकरण बिगाड़ कर रख दिए।
भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते कांग्रेस से निकालने के बाद पं. सुखराम ने न केवल अपनी पार्टी का गठन किया। बल्कि मात्र चार सीटें जीतने के बावजूद सत्ता का संतुलन अपने हाथ में ले लिया। हालांकि, वीरभद्र सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ भी ग्रहण कर ली थी…। प्रदेश का सियासी माहौल पहली बार इतना हिंसक हो उठा था, माल रोड पर तलवारें निकल गई थीं। कांग्रेस और गैर कांग्रेसियों के बीच मारपीट और हिंसक झड़पें हो रही थीं। हिविंका और भाजपा के विधायक प्रदेश से बाहर भेज दिए गए थे, ध्वाला की तरह वीरभद्र समर्थक उन्हें उठा न ले। सुखराम-प्रेम कुमार धूमल के साथ पंजाब पुलिस की सुरक्षा में शिमला पहुंचे और विधानसभा में अपना बहुमत साबित किया और वीरभद्र सिंह को 28 दिन के बाद इस्तीफा देना पड़ा था।
यह पहला मौका था जब प्रदेश में पहली बार गठबंधन सरकार बनी थी। जिसमें कांग्रेस को विपक्ष की बैंच पर बैठना पड़ा था। मगर भाजपा के साथ गठबंधन कर अपने जीते हुए सभी विधायकों को न केवल मंत्री बना दिया बल्कि सत्ता की चाबी भी अपने पास रखी। जब उन्हें लगता कि धूमल सरकार में उनकी नहीं सुनी जा रही है तो वे नई सियासी चाल चल कर दबाव बनाए रखते।
पं. सुखराम ने जहां अहम महकमे अपने पास रखे थे, वहीं पर अपने बेटे अनिल शर्मा को राज्यसभा का सदस्य बना दिया था। भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने के बाद जब उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा तो लोकनिर्माण जैसा अहम महकमा उस समय के अपने करीबी महेंद्र सिंह को थमा दिया। यही नहीं सरकार पर नकेल कसने के लिए अपने सभी मंत्रियों के इस्तीफे लेकर जेब में रख लिए थे। हिविंका के इस झटके से तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को समझौतावादी रूख अपनाते हुए हिविंका के पांचवें विधायक रामलाल मार्कंडेय को राज्यमंत्री बनाना पड़ा और पं. सुखराम के लिए रोजगार संसाधन सृजन चेयरमैन का पद कैबिनेट रैंक का सृजित करना पड़ा था।
सुखराम ने अपने दो विधायकों प्रकाश चौधरी और मनसा राम को भले ही तकनीकी रूप से भाजपा में शामिल करवा दिया था। मगर इसके बावजूद उन पर अपना दावा बरकरार रखा। हालांकि, पंडित सुखराम के भाजपा के प्रति आक्रोश को कई बार प्रेम कुमार धूमल घर के बुजूर्ग का गुस्सा कह कर टाल देते थे। मगर विधानसभा में अपने विधायकों की गिनती के गणित में भाजपा का पलड़ा भारी होते देख पं. सुखराम मनसा राम और प्रकाश चौधरी के भाजपा में शामिल होने को महज स्टेज मैनेज्ड शो करार देते।
गठबंधन सरकार में भी सुखराम ने भाजपा के कमल से टेलिफोन के तार को लपेट कर सत्ता का रिमोट अपने ही हाथ में रखा था। सुखराम भाजपा को यह भी अहसास दिलाते रहते थे कि अगर हिविंका कमजोर हुई तो भाजपा भी नहीं रहेगी। उन्हें जब लगा कि अब हिविंका का वजूद प्रदेश की सियासत में खत्म हो रहा है तो उन्होंने कांग्रेस में वापसी कर हिविंका का विलय कांग्रेस में कर दिया। मगर यहां भी अपने परंपरागत प्रतिद्वंद्वी वीरभद्र सिंह से दाल नहीं गली, तो बेटे अनिल शर्मा के साथ भाजपा में शामिल हो गए और मंडी जिला की सभी दस सीटों पर कांग्रेस को करारी हार झेलनी पड़ी।
भाजपा सत्ता में आई तो बेटे अनिल शर्मा को मंत्री बनवाने में सुखराम कामयाब रहे। मगर सियासत में हर दावं सही पड़े ऐसा भी नहीं है…पोते की राजनीतिक महत्वकांक्षा के आगे सियासत का यह चाणक्य गलत चाल चल बैठा और पोते के नाम सबसे बड़ी हार का कलंक लगने के साथ ही बेटे को मंत्री पद से भी हाथ धोना पड़ा था। अदलती झमेलों और बढ़ती उम्र के चलते पं. सुखराम अब सक्रिय राजनीति से बाहर हो चुके थे। इसके बावजूद पांच दशक से अधिक का सक्रिय राजनीतिक जीवन काफी उतार-चढ़ाव भरा रहा।